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चेतना की एक तलाश–मैं कौन हूँ?

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अपने जीवन के एक चरण में हर व्यक्ति यह सवाल पूछता अवश्य है: मैं कौन हूं? यह चेतना कहां से आती है? यह प्रश्न प्राचीन काल से उठाया गया है, जब से हम अस्तित्व में हैं। विशेष रूप से पश्चिमी दार्शनिकों द्वारा और न ही आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया गया है।

सामान्य वैज्ञानिक विचार

विज्ञान कहता है कि हम धीरे-धीरे सरल उप परमाणु कणों जैसे ग्लुओंस, म्युओंस और क्वार्क इत्यादि से जटिल प्राणियों में विकसित हुए| इन कणों के साथ-साथ बंधने पर परमाणु बने| फिर परमाणुओं से, हमारे  अणु बनते हैं, आगे जाकर ऑर्गेनिक अणुओं से पदार्थ, जिन्हें  हम देख-समझ सकते हैं| और आखिर में हम, सचेत प्राणियों या इंसान जिनके पास शरीर, मन और चेतना है–चेतना यानी स्वयं या (पवित्र) आत्मा जो जागरूकता पैदा करती है या अनुभव का एहसास करती है।

वैज्ञानिक यह समझाने में असफल रहे हैं  कि उप परमाणु कणों से पहले अस्तित्व में क्या था। इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली  बात यह है कि यह चेतना हमारे अंदर आ कैसे  गई। उनके (वैज्ञानिकों ) लिए चेतना मौजूद नहीं लगती है, यह केवल मन (Mind) है।

हमारी असली पहचान क्या है?

वास्तव में, जब आप अपने सच्चे आत्म पर विचार करना शुरू करते हैं  तो पहली बात है जो आपके दिमाग में आती है वह है आपका नाम, आपकी पहचान। लेकिन यह आप नहीं हैं, क्योंकि अगर कोई आपको दूसरे नाम से बुलाता है या यदि आप अपना नाम बदलते हैं, तो क्या आप बदल जाएंगे? नहीं, आप एक ही स्व ही रहेंगे, यह बहुत ही भ्रामक स्व है जिसे हम जानना चाहते हैं।

इसलिए, आप कहते हैं कि मैं पति हूं; क्या यह सच है? बिलकुल नहीं, कल अगर आप तलाक लेते हैं, तो आप अब अकेले आदमी हैं। इसी प्रकार, आप एक व्यापारी, सरकारी अधिकारी, एक सैनिक, या एक किसान होने के नाते सभी अस्थायी या क्षणिक पहचान हैं।

हम शरीर या मन नहीं हैं

हम ज्यादातर  इस विचार में ही इतने उलझे हुए हैं कि हम या हमारा सच्चा आत्म केवल हमारा शरीर है, जिसमें मन भी रहता है। हालांकि, जब आप जांच या विश्लेषण शुरू करते हैं तो आपको एहसास होता है कि “यह मेरा सिर है लेकिन यह मैं नहीं हूं, यह मेरा दिमाग है लेकिन मैं अपना मन नहीं हूं।

यह मेरा दिमाग है लेकिन मैं नहीं हूं: अलग-अलग लोगों में मन अलग क्यों है? उदाहरण के लिए: एक आदिवासी व्यक्ति जो अपने पूरे जीवन में गहरे जंगल में रहता था, उसका एक शिक्षित शहरी व्यक्ति की तुलना में एक बिल्कुल अलग मन होगा। हालांकि, चेतना के मामले में, यह हर किसी में समान है:  जागरूकता सब लोगों में एक सी  ह: चाहे कोई  जनजातीय समूह से हों या शहर की स्मार्ट जीवन शैली से, हम सबको एक ही स्व द्वारा समरूप से देखा जा रहा है| यह पर्यवेक्षक सार्वभौमिक है, संस्कृति तक सीमित नहीं है, इंद्रियों से अनुभवों की मात्रा तक सीमित नहीं है, यह सच्ची चेतना है–यह दिमाग तो कतई नहीं है। आप इसे सच्ची चेतना, आत्म, स्व, आत्मा अथवा रूह इत्यादि नाम दे सकते हैं।

तब मैं हूँ कौन ?

इस मामले की सच्चाई यह है कि हम अनन्त आत्माएं हैं, जो कितने ही जन्म-जन्मान्तरों से अज्ञानता की पोतड़ों के परत दर परत बहुत गहरे दबे हुए हैं| दरअसल हमारा सच्चा आत्म “सत चित आनंद” है (पूर्ण / सत्य चेतन आनंद)। यह ब्रहम की प्रकृति है- उच्चतम चेतना या मात्र ईश्वर वही है जिसका कुछ अंश हम सभी में चेतना के रूप में पाया जाता है। इस प्रकार, हमारे सच्चे आत्म को महसूस नहीं करना सभी पीड़ाओं का कारण है।

जब एक बार जब हम अपनी वास्तविक प्रकृति का एहसास कर लेते हैं, तो तत्काल प्रकृति के प्रत्येक हिस्से के साथ असीम शांति और संबंध की भावना उत्प्प्न्न होगी–न केवल जीवित प्राणियों के साथ। आप देखेंगे कि चट्टान का एक टुकड़ा भी एक उड़ते पक्षी सा सुन्दर प्रतीत होता है। बिना प्रयोजन के कुछ भी घटता प्रतीत नहीं होता है। ब्रह्मांड की सभी भव्य योजना आपके लिए स्पष्ट हो जाती है।

जो भी हो रहा है आप उसका विरोध नहीं करते हैं, बल्कि आप उस शक्ति द्वारा आवंटित अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं-फिर आप बिना किसी उम्मीद के, सूर्य, चंद्रमा और सितारों की तरह निःस्वार्थ रूप से काम करते हैं। यही  हमारा सच्चा आत्म है, यही वह है जो ‘मैं’ हूं।

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