सैन्य रणनीतिकार सून त्ज़ु ने अध्याय 7 में कहा है: युद्ध में, सेनापति राजा से आज्ञा लेकर सेना एकत्रित करके उसे केंद्रित करता है, उसके पश्चात उसे अपना शिविर स्थापित करने से पहले विभिन्न तत्वों को मिश्रित करके उनमें सामंजस्य बिठाना चाहिए। फिर सामरिक पैंतरेबाज़ी आती है जिससे अधिक कठिन कुछ भी नहीं है। सामरिक पैंतरेबाज़ी की कठिनाई यह है उसमें कुटिल को प्रत्यक्ष में और दुर्भाग्य को लाभ में बदलना होता है। इस प्रकार, दुश्मन को रास्ते से हटाने के बाद एक लंबा और घुमावदार रास्ता तय करना, दुश्मन के बाद चलना शुरू करने के बावज़ूद भी लक्ष्य तक पहले पहुंचने के लिए संघर्ष करना–यह “फरेब से विचलित करने की कला” का ज्ञान दर्शाता है।
दुश्मन की योजना का प्राकृतिक लाभ उठाना
सेना के साथ युद्धाभ्यास करना लाभप्रद है लेकिन एक अनुशासनहीन भीड़ के साथ ये करना खतरनाक है। यदि आप एक लाभ उठाने के लिए पूरी तरह से सुसज्जित सेना को मार्च कराते हैं, तो संभावना है कि आपको बहुत देर हो जाएगी। दूसरी ओर, इस उद्देश्य के लिए एक उड़न टुकड़ी को अलग निकालने के लिए इसके सामान और भंडारों का त्याग करना होगा।
इस प्रकार, यदि आप अपने वर्दीधारियों को दिन या रात को बिना रुके जबरन मार्च का आदेश देते हैं, एक फायदा उठाने के लिए गति को दुगुना बढ़ाकर सौ मील की दूरी तय करते हैं तो आपके सभी तीनों विभागों के मुखिया दुश्मन के हाथों में पड़ जाएंगे। मज़बूत सिपाही आगे होंगे, थके-मांदे लोग पीछे होते जाएंगे और इस योजना के तहत आपकी सेना का केवल दसवां हिस्सा अपने गंतव्य तक पहुँच सकेगा। यदि आप दुश्मन से आगे निकलने के लिए पचास मील मार्च करते हैं, तो आप अपने पहले डिवीजन के नेता को खो देंगे, और आपकी फ़ोर्स का केवल आधा भाग ही लक्ष्य तक पहुंच पाएगा। यदि आप इसी लक्ष्य के साथ तीस मील मार्च करते हैं, तो आपकी सेना का दो-तिहाई भाग पहुंचेगा।
हम इससे यह समझ ले सकते हैं कि बिना आपूर्ति-गाड़ी तथा रसद के आपकी सेना खो जाती है; आपूर्ति के ठिकानों के बिना यह भटक जाती है। जब तक उनकी योजना से परिचित नहीं होंगे, तब तक हम अपने पड़ोसियों के साथ गठबंधन नहीं कर सकते हैं। हम तब तक सेना के मार्च का नेतृत्व करने के लिए फिट नहीं हैं जब तक हम देश के भूगोल – इसके पहाड़ और जंगल, इसके गड्ढे, खाईयों और दलदल से परिचित नहीं हैं। जब तक हम स्थानीय गाइडों का उपयोग नहीं करेंगे, तब तक हम प्राकृतिक लाभ नहीं उठा पाएंगे।
युद्ध में, छल-कपट और माया
युद्ध में, छल-कपट और माया का अभ्यास करें तो आप सफल होंगे। ध्यान या अपने सैनिकों को विभाजित करना है या केंद्रित यह परिस्थितियों से तय किया जाना चाहिए। अपनी गति तेज़ हवा की तरह रखो और सघनता जंगल की तरह बनाओ। छापेमारी और लूट में आग की तरह होना, अचलता में पहाड़ की तरह होना चाहिए। अपनी योजनाओं को रात के अंधेरे की भांति गुप्त और अभेद्य रखें और जब आप कूद पड़ें तो वज्र की तरह गिरें । जब आप ग्रामीण इलाकों को लूटें तो लूट को अपने लोगों के बीच बराबर बाँटें; जब आप नए क्षेत्र पर कब्जा करें, तो लाभ को सैनिकों में आवंटन करें। आप एक चाल चलने से पहले गहन विचार करें। वह जीत जाएगा जिसने धोखे से विचलित करने की कला सीख ली है। ऐसी है युद्धाभ्यास की कला।
पताका और झंडे की व्यवस्था
आर्मी मैनेजमेंट की पुस्तक कहती है: “लड़ाई के क्षेत्र में, मुख से निकला शब्द ज़्यादा दूर तक नहीं जाता है इसलिए ढोल और घंटे की व्यवस्था की गयी है; वैसे ही साधारण वस्तुओं को ढंग से नहीं देखा जा सकता है इसलिए पताका और झंडे की व्यवस्था है। ढोल और घंटे, पताका और झंडे ऐसे साधन हैं जिससे सेना के कान और आंखें एक विशेष बिंदु पर केंद्रित हो जाती हैं और इस प्रकार एकल संगठित समूह बनाता है। तो इस समूह के बनने के बाद किसी बहादुर का अकेले आगे बढ़ना, या कायर का अकेले पीछे हटना असंभव हो जाता है। यह सिपाहियों के बड़े समूह को संभालने की कला है।
तो रात की लड़ाई में सांकेतिक आग दागें और ढ़ोल का अधिक उपयोग करें। दिन के समय लड़ते हुए झंडे और पताका को अपनी सेना के कान और आंखों को प्रभावित करने के साधन के रूप में इस्तेमाल करें। ऐसे एक पूरी सेना के साहस को तोड़ा जा सकता है और एक कमांडर को भी उसकी बौद्धिक तत्परता से भटकाया जा सकता है।
धैर्य परिस्थितियों का अध्ययन करने की कला
सुबह में एक सैनिक का जोश ज़बरदस्त रहता है, दोपहर तक यह ठंडा होना शुरू हो जाता है और शाम को उसका मन केवल शिविर में लौटने पर तुला हुआ होता है। इसलिए एक चतुर सेनापति एक जोशीली सेना से बचता है, लेकिन जब वह सुस्त और वापस लौटने के लिए इच्छुक होती है तो उस पर हमला करता है। यह मनःस्थिति (मूड) का अध्ययन करने की कला है। शत्रु के बीच अराजकता और कोलाहल होने का इंतजार करते हुए अनुशासित और शांत: रहना — यह धैर्य बनाए रखने की कला है।
लक्ष्य के पास होना जबकि दुश्मन अभी भी इससे दूर है, स्वयं आराम से इंतज़ार में खड़े होकर शत्रु को मेहनत और संघर्ष करते हुए देखना, अच्छी तरह से खाया-पीया होना जबकि दुश्मन भूखा हो –यह अपनी ताकत का किफायत से इस्तेमाल करने की कला है। किसी ऐसे शत्रु को रोकना से बचना जिसकी पताकाएँ एकदम सुव्यवस्थित है, शांत और आत्मविश्वास से भरी सेना पर हमला करने से बचना –यह परिस्थितियों का अध्ययन करने की कला है।
यह एक स्वयंसिद्ध सैन्य सूत्र है कि वह दुश्मन के खिलाफ निचे से ऊपर आगे नहीं बढ़ना चाहिए, न ही ऊँचाई से निचे आ रहे दुश्मनों का विरोध करना चाहिए । भागने का नाटक करने वाले दुश्मन का पीछा न करें; उन सैनिकों पर हमला न करें जिनका स्वभाव जोश भरा हो है। दुश्मन द्वारा लटकाए गए चारा को न निगलें। घर लौट रही सेना के साथ हस्तक्षेप न करें।जब आप एक सेना को घेर लेते हैं, तो एक निकासी का रास्ता रहने देवें। एक दुस्साहसिक (मरने पर उतारू) दुश्मन को बहुत ज़्यादा दबाएं नहीं। ऐसी है युद्ध की कला!
अध्याय 7: समाप्त
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